tag:blogger.com,1999:blog-387403142024-03-12T21:48:22.465-07:00नवगीत पर आलेखनवगीत पर लिखे गए आलेखों का यहाँ स्वागत है। आप अपने आलेख navgeet2011@gmail.com पते पर भेज सकते हैं।
-सम्पादकUnknownnoreply@blogger.comBlogger3125tag:blogger.com,1999:blog-38740314.post-30578418711334926422012-05-11T19:20:00.000-07:002012-05-11T19:20:48.376-07:00कार्यशाला-21<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<br />
नवगीत की पाठशाला का निरंतर चलते जाना इस बात का प्रमाण है कि नवगीत को पसंद किया जा रहा है और नये लोग नवगीत सीखना चाहते हैं। नवगीत में नई कविता का कथ्य लयात्मकता की रेशमी डोर में आवद्ध होकर जब प्रस्तुर किया जाता है तो वह अपना ऐसा प्भाव छोड़ता है कि जो पाठक या श्रोता को ठीक उसी तरह से मोह लेता है जैसे हरसिंगार का पुष्प अपनी सघन जादुई गंध से मोह लेता है। कार्यशाला २१ के लिए हरसिंगार विषय दिया गया था, जिस पर २१ नवगीत पोस्ट किये गए। कुमार रवीन्द्र का पाठशाला में सक्रिय रहना बहुत बड़ी बात है, उनके नवगीत न जाने कितनों को सीखने का सुअवसर प्रदान करते रहते हैं। वे नवगीत लिखते हैं तो लगता है कि बात कर रहे हैं-<br />
<br />
"उधर रूपसी धूप<br />
नदी पर तैर रही है<br />
इधर हवा ने<br />
छुवन-पर्व की कथा कही है<br />
<br />
साँस सुखी है -<br />
कौंध जग रही कनखी के पहले दुलार की "<br />
<br />
-कुमार रवीन्द्र<br />
<br />
हमारे समाज में हरसिंगार तो खिल रहे हैं पर उसकी सुगंध को गली कूँचों तक फैलने से रोके जाने के असफल प्रयास स्वार्थवश सदा से होते रहे हैं, इसी की एक झलक यहाँ देखी जा सकती है--<br />
<br />
" सहमी दूब<br />
बाँस गुमसुम है<br />
कोंपल डरी-डरी<br />
बूढ़े बरगद की<br />
आँखों में<br />
खामोशी पसरी<br />
बैठा दिए गए<br />
जाने क्यों<br />
गंधों पर पहरे ।"<br />
और जब गंधों पर पहरे बैठाने जैसी हरकतें की जाती हैं तब स्वाभाविकता प्रभावित होती ही है--<br />
<br />
" वीरानापन<br />
और बढ़ गया<br />
जंगल देह हुई<br />
हरिणी की<br />
चंचल-चितवन में<br />
भय की छुईमुई<br />
टोने की ज़द से<br />
अब आखिर<br />
बाहर कौन करे "<br />
<br />
-डा० जगदीश व्योम<br />
<br />
संजीव सलिल जीवन की खुरदरी जमीन पर हरसिंगार के खिलने का तब अहसास कर लेते है जब जीवन संगिनी खिलखिलाती दिख जाती है--<br />
<br />
" खिलखिलायीं पल भर तुम<br />
हरसिंगार मुस्काए<br />
पनघट खलिहान साथ,<br />
कर-कुदाल-कलश हाथ<br />
सजनी-सिन्दूर सजा-<br />
कब-कैसे सजन-माथ?<br />
हिलमिल चाँदनी-धूप<br />
धूप-छाँव बन गाए"<br />
<br />
-संजीव सलिल<br />
<br />
जयकृष्ण राय तुषार जी हरसिंगार के मादक फूलों की अनुभूति प्रिय के प्रेमपगी चितवन में कर लेते हैं-<br />
<br />
" बाँध दिए<br />
नज़रों से फूल हरसिंगार के<br />
तुमने कुछ बोल दिया<br />
चर्चे हैं प्यार के<br />
बलखाती<br />
नदियों के संग आज बहना है<br />
अनकहा रहा जो कुछ आज वही कहना है<br />
अब तक हम दर्शक थे नदी के<br />
कगार के<br />
- जयकृष्ण राय तुषार<br />
<br />
डा० राजेन्द्र गौतम के नवगीत अपनी अलग पहचान रखते हैं, उनके पास लोक जीवन के अनुभव का अद्भुत खजाना है, बोलचाल की भाषा में वे जो कह देते हैं उससे कहीं अन्दर तक छुअन और अनुभूति जन्य सिहरन का अहसास होने लगता है, स्मृतियों के बन्द कपाट जब खुलते हैं तो मन मृग न जाने कहाँ कहाँ तक कुलाँचे मारता हुआ पहुँच जाता है--<br />
<br />
"यद्यपि अपनी चेतनता के<br />
बन्द कपाट किये हूँ<br />
पलकों में वह साँझ शिशिर की<br />
फिर भी घिर-घिर आती<br />
<br />
पास अँगीठी के बतियाती<br />
बैठी रहतीं रातें<br />
दीवारों पर काँपा करती<br />
लपटों की परछाई<br />
मन्द आँच पर हाथ सेंकते<br />
राख हुई सब बातें<br />
यादों के धब्बों-सी बिखरी<br />
शेष रही कुछ स्याही<br />
आँधी, पानी, तूफानों ने<br />
लेख मिटा डाले वे<br />
जिनकी गन्ध कहीं से उड़ कर<br />
अब भी मुझ तक आती<br />
<br />
-डॉ. राजेन्द्र गौतम<br />
<br />
<br />
महानगरों के अतिरिक्त व्यामोह ने गाँव की संस्कृति को कुचल कर रख दिया है, अब हरसिंगार उगायें भी तो कहाँ उगायें ? कल्पना रामानी ने इस अभावजनक अनुभूति को नवगीत में सीधे सरल शब्दों में बाँधने का प्रयास किया है-<br />
<br />
" अब न रहा वो गाँव न आँगन,<br />
छूट गया फूलों से प्यार।<br />
छोटे फ्लैट चार दीवारें,<br />
कहाँ उगाऊँ हरसिंगार।<br />
खुशगवारयादों का साथी,<br />
बसा लिया मन उपवन में "<br />
<br />
-कल्पना रामानी<br />
<br />
जीवन की क्षणभंगुरता ही जीवन का सत्य है, इसका अहसास हमें होना ही चाहिए, महेन्द्र भटनागर हरसिंगार के फूल की क्षणभंगुरता के माध्यम से सचेत करते हैं कि थोड़े समय में जैसे हरसिंगार सुगंध लुटाकर मन मन में बस जाता है तो फिर हम भी वही करें--<br />
" जीवन हमारा<br />
फूल हरसिंगार-सा<br />
जो खिल रहा है आज,<br />
कल झर जायगा "<br />
<br />
-महेन्द्र भटनागर<br />
<br />
शशि पाधा अपने देश से बाहर रहकर यहाँ की सांस्कृतिक सुगंध को मन्द नहीं होने देना चाहती हैं, उन्हें लगता है कि हरसिंगार के फूलों की गंध में माँ का प्यार कहीं छिपा हुआ है-<br />
<br />
" घर अँगना फिर हुआ सुवासित<br />
तुलसी -चौरा धूप धुला<br />
ठाकुर द्वारे चन्दन महके<br />
देहरी का पट खुला-खुला<br />
आशीषों के<br />
शीतल झोंके<br />
आँचल बाँध के लाई माँ "<br />
-शशि पाधा<br />
<br />
त्रिलोक सिंह ठकुरेला नवगीत की प्रकृति को बहुत करीब से पहचानते हैं, वे कुछ ऐसा प्रस्तुत करते हैं कि उनका नवगीत गुनगुनाने का मन हो ही उठता है, सकारात्मक सोच और संघर्षों से जूझने की प्रेरणा से युक्त ठकुरेला जी के नवगीत बहुत प्रभावित करते हैं--<br />
<br />
" मन के द्वारे पर<br />
खुशियों के<br />
हरसिंगार रखो.<br />
जीवन की ऋतुएँ बदलेंगी,<br />
दिन फिर जायेंगे,<br />
और अचानक आतप वाले<br />
मौसम आयेंगे,<br />
संबंधों की<br />
इस गठरी में<br />
थोडा प्यार रखो "<br />
<br />
- त्रिलोक सिंह ठकुरेला<br />
<br />
शारदा मोंगा ने हरसिंगार के फूलों का मदिर गंध बिखराना और मन्द गति से उनका झरना, मालिन का बीन बीन कर डलिया भरना .......... नवगीत में पिरोकर दृश्य बिम्ब उपस्थित कर दिया है--<br />
" गंध मदिर बिखरे<br />
रात भर हरसिंगार झरे<br />
<br />
श्वेत रंग की बिछी चदरिया,<br />
शोभित हरी घास पर हर दिन<br />
चुन चुन हार गूँथ कर मालिन,<br />
डलिया खूब भरे,<br />
रात भर हरसिंगार झरे "<br />
-शारदा मोंगा<br />
<br />
वरिष्ठ नवगीतकार डा० भारतेन्दु मिश्र हरसिंगार का मुट्ठी से छूट जाना एक भरम का टूट जाना भर मानते हैं-<br />
" चलो यार<br />
एक भरम टूट गया<br />
मुट्ठी से हरसिंगार छूट गया<br />
<br />
पीतल के छल्ले पर<br />
प्यार की निशानी<br />
उसकी नादानी<br />
ठगी गयी फिर शकुंतला<br />
कोई दुष्यंत उसे लूट गया"<br />
<br />
-डॉ. भारतेन्दु मिश्र<br />
<br />
डा० राधेश्याम बंधु अपने नवगीतों में संस्कृति को सुरक्षित रखने की चिन्ता के साथ साथ जीवन में प्यार और विश्वास को बनाये रखने का आवाहन करते रहते हैं, उनके पास जीवन्त भाषा तो है ही उनकी प्रस्तुति ऐसी है कि नवगीत सहज ही मन के किसी कोने में बैठ जाता है--<br />
<br />
" फिर फिर<br />
जेठ तपेगा आँगन,<br />
हरियल पेड लगाये रखना,<br />
विश्वासों के हरसिंगार की<br />
शीतल छाँव<br />
बचाये रखना।<br />
हर यात्रा<br />
खो गयी तपन में,<br />
सड़कें छायाहीन हो गयीं,<br />
बस्ती-बस्ती<br />
लू से झुलसी,<br />
गलियाँ सब गमगीन हो गईं।<br />
थका बटोही लौट न जाये,<br />
सुधि की जुही<br />
खिलाये रखना ..."<br />
<br />
- राधेश्याम बंधु<br />
<br />
कार्यशाला के अन्य नवगीतों में हरसिंगार के माध्यम से जीवन के तमाम प्रसंगों को प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया, इनमें - श्री अनिल वर्मा , श्री धर्मेन्द्र कुमार सिंह, डॉ. मधु प्रधान, श्री क्षेत्रपाल शर्मा, श्रीकान्त मिश्र 'कान्त', सुश्री रचना श्रीवास्तव, श्री परमेश्वर फुंकवाल, श्री अश्विनी कुमार विष्णु के नवगीत अपनी विशिष्ट छाप छोड़ने में सफल रहे हैं। जिन नवगीतकारों ने कार्यशाला में सहभागिता की और इस बहाने नवगीत रचकर पोस्ट किया उन सभी का पाठशाला के पाठकों की ओर से आभार और जिन पाठकों ने पाठशाला के हरसिंगारी सुगंध से युक्त नवगीतों को पढ़ा और अपनी बहुमूल्य प्रतिक्रियाएँ लिखीं उन सभी का कार्यशाला के नवगीतकारों की ओर से तथा पाठशाला के संयोजकों की ओर से बहुत बहुत आभार।<br />
<br />
प्रस्तुति-<br />
<br />
डा० जगदीश व्योम<br />
<br />
<br />
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<br /></div>
</div>Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-38740314.post-58070599198356769632011-10-05T06:17:00.001-07:002011-10-05T06:19:17.610-07:00महेंद्रभटनागर के गीतों में नवाचार<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: right;">-डा. रामसनेहीलाल शर्मा 'यायावर' </div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">छायावाद-काल में ही कविता में नवता के प्रति आकर्षण -- </div><div style="text-align: justify;">'' नव गति नव लय ताल छंद नव, </div><div style="text-align: justify;">नवल कंठ, नव जलद मन्द्र रव </div><div style="text-align: justify;">नव नभ के नव विहग-वृंद को </div><div style="text-align: justify;">नव पर नव स्वर दे!''</div><div style="text-align: justify;">-- निराला</div><div style="text-align: justify;">और काव्य के पारम्परिक प्रतिमानों को तोड़ने की ललक -- (''खुल गये छंद के बंध प्रास के रजत-पाश!'' -- पंत) के स्वर सुनायी पड़ने लगे थे; जिसके परिणाम प्रगतिवाद में सहज और भदेस के प्रति आकर्षण, सर्वहारा व शोषित के प्रति प्रेम व शोषक के प्रति आक्रोश के रूप में सामने आये और प्रयोगवाद में लघु मानव की प्रतिष्ठा, छंद-मुक्त गद्य-कविता की प्रतिष्ठा और वैचारिकता की प्रधानता के रूप में। नयी कविता ने काव्य के सभी प्राचीन बन्धनों और प्रतिमानों को ध्वस्त कर दिया। इसी काल में पाँचवें दशक में छायावादी गीतों की कोमलता, तत्समबहुलता, भाषिक आभिजात्य, शैलीगत मार्दव के प्रति अनाकर्षण जैसे तत्व पनपे। इस कालखंड में दो प्रकार के गीतकार दिखाई पड़े। एक वे जो गीत के पारम्परिक प्रतिमानों -- गहन आत्मानुभूति, छंद की स्वीकृति, लय की सहजता और रागात्मक तत्वों की अभिव्यक्ति के क्षेत्र में थोड़ी छूट लेकर गीत को नवाचार दे रहे थे। इनमें वीरेंद्र मिश्र, शम्भूनाथ सिंह, देवद्रें शर्मा 'इन्द्र', रवीन्द्र 'भ्रमर', उमाकान्त मालवीय आदि जैसे गीतकार थे तो दूसरे वे कवि थे जो मूलतः नयी कविता के साथ जुड़े परन्तु गीत के क्षेत्र में भी उन्होंने नयेपन को अपनाकर नये गीतों का सृजन किया। इस वर्ग में भारतभूषण अग्रवाल, महद्रेंभटनागर, और केदारनाथ सिंह जैसे कवि दिखायी पड़े। नवगीत को आन्दोलन का रूप तो 1955 के आसपास दिया जाने लगा परन्तु उससे पहले के इन दोनों वर्गों के गीतकारों में नवगीत के पूर्वरूप के दर्शन होने लगे थे। नवगीत में प्रकृति, लोकचेतना, मूल्य-क्षरण और जीवनगत विसंगतियों की अभिव्यक्ति के स्वर उसकी काठी को रच रहे थे। उपर्युक्त गीतकारों में इन स्वरों का पूर्वरूप और नयेपन की ललक दिखने लगी थी। महद्रेंभटनागर के गीत नवगीत की भूमिका रचते दिखायी पड़ते हैं। </div><div style="text-align: justify;">सन् 1949 से सृजित उनके 50 नवगीत 'जनवादी लेखक संघ', वाराणसी से प्रकाशित 'जनपक्ष' -- 8 (सन् 2010) में प्रकाशित हुए हैं। इन गीतों में जीवन के तप्त स्वर और 'नवता' के प्रति आकर्षण ध्वनित हो रहा है। सम्पादकीय टिप्पणी के अनुसार -- ''महेंद्रभटनागर-विरचित नवगीत विशिष्ट हैं । वे गेय हैं। छंद का बंधन ज़रूर नहीं है। किन्तु वे छंद-मुक्त नहीं हैं। चरणबद्ध हैं। उनमें एक निश्चित मात्रिक-क्रम है। तुकों का व्यवस्थित प्रयोग है। उनके नवगीतों का शिल्प उनका अपना है।''नवगीत के प्रारम्भ से ही प्रकृति के प्रति अपने सहज आकर्षण परन्तु उसके नवरूप की स्वीकृति को स्वीकारा। महेंद्र जी के इन गीतों में 'री हवा', 'हेमन्ती धूप', 'एक रात', 'वर्षा-पूर्व', 'शीतार्द्र', तथा 'हेमन्त' प्रकृति को अपने ढंग से प्रस्तुत करने वाली रचनाएँ हैं । इनमें कहीं हवा यौवन भरी, उन्मादिनी है जिसका आवाहन कवि 'मेघ के टुकड़े लुटाती आ' कहकर कर रहा है। 'खिलखिलाती, रसमयी, जीवनमयी' यह हवा जीवन में उल्लास और जिजीविषा का अथक स्रोत जगाती लगती है। यह तरुण कवि का उल्लासमय नूतन स्वर है। कहीं हेमन्ती धूप मोहिनी है, सुखद है, और कहीं वर्षा-पूर्व --</div><div style="text-align: justify;"> ' किसी ने डाल दी तन पर </div><div style="text-align: justify;">सलेटी बादलों की रेशमी चादर! </div><div style="text-align: justify;">मोह लेती है छटा </div><div style="text-align: justify;">मोद देती है घटा </div><div style="text-align: justify;"> काली घटा!' </div><div style="text-align: justify;">परन्तु इन रचनाओं में कवि अपनी रागात्मक संवेदनाओं से आगे नहीं जा पाता। नवगीत ने आगे चलकर प्रकृति को जिस मानवीकृत और तटस्थ रूप में अपनाया वह 'शीतार्द्र' और 'हेमन्त' में दिखायी पड़ता है। 'शीतार्द्र' में 'कोहरा' कारीगर है, रजनी अध्यक्ष है, और नव-प्रभात डर कर बैठा हुआ है; परन्तु हवा 'उन्मादिनी यौवन भरी' है, 'मोहक गंध से भरी पुरवैया' है। कवि को 'प्रिया-सम' हेमन्ती धूप की गोद में सो जाने की ललक है; क्योंकि वह 'मोहिनी' है। 'वर्षा-पूर्व' में ' हवाओं से लिपट / लहरा उठा / ऊमस भरा वातावरण-आँचर' है। 'हेमन्त' में प्रिया से वह कहता है, 'ऐसे मौसम में चुप क्यों हो / कहो न कोई मन की बात!' ये सारे तत्व छायावाद की प्रणयी प्रवृत्ति के अवशेष हैं। कवि छयावाद के मादक, मोहक प्रभाव से अपने को मुक्त नहीं कर पाया है। </div><div style="text-align: justify;">वस्तुतः नवगीत ने जिस जीवन-गति और संघर्ष-चेतना को अपना मूल स्वर बनाया वह उनकी गीति-रचनाओं में 'जीवन : एक अनुभूति', 'अनुदर्शन', 'नियति', 'परिणति', 'नवोन्मेष', 'विराम', 'आग्रह','घटना-चक्र','अकारथ', 'चाह', 'आह्वान', 'दृष्टि', 'परिवर्तन' आदि जैसी रचनाओं में दिखाई पड़ता है। इन रचनाओं में कवि समाज में समता का बीजमंत्र बोने का इच्छुक है। जीवन की विषमताओं, संघर्ष और मूल्य-क्षरण से व्यथित दिखाई पड़ता है। अनास्था के विरुद्ध आस्था का आलोक-स्वर गुँजाना चाहता है। उसे लगता है कि नया युग आ गया है --</div><div style="text-align: justify;">मौसम </div><div style="text-align: justify;">कितना बदल गया!</div><div style="text-align: justify;">सब ओर कि दिखता</div><div style="text-align: justify;">नया-नया! </div><div style="text-align: justify;">सपना --</div><div style="text-align: justify;">जो देखा था</div><div style="text-align: justify;">साकार हुआ,</div><div style="text-align: justify;">अपने जीवन पर</div><div style="text-align: justify;">अपनी क़िस्मत पर</div><div style="text-align: justify;">अपना अधिकार हुआ!</div><div style="text-align: justify;">समता का</div><div style="text-align: justify;">बोया था जो बीज-मंत्र</div><div style="text-align: justify;">पनपा, </div><div style="text-align: justify;">छतनार हुआ!</div><div style="text-align: justify;">सामाजिक-आर्थिक</div><div style="text-align: justify;">नयी व्यवस्था का आधार बना! </div><div style="text-align: justify;">शोषित-पीड़ित जन-जन जागा,</div><div style="text-align: justify;">नवयुग का छविकार बना! </div><div style="text-align: justify;">साम्य-भाव के नारों से</div><div style="text-align: justify;">नभ-मंडल दहल गया!</div><div style="text-align: justify;">मौसम </div><div style="text-align: justify;">कितना बदल गया!</div><div style="text-align: justify;">('परिवर्तन') </div><div style="text-align: justify;">इनमें वह युग-परिवर्तनकारी स्वरों का गायक बना है। इन गीतों में ज़िन्दगी उसे ''धूमकेतन-सी अवांछित, जानकी-सी त्रस्त लांछित, बदरंग कैनवस की तरह, धूल की परतें लपेटे किचकिचाहट से भरी, स्वप्नवत्'' प्रतीत होती है। उसे लगता है कि ''शोर में / चीखती ही रही ज़िन्दगी / हर क़दम पर विवश / कोशिशों में अधिक विवश'' है। उसकी सामूहिक विवशता का स्वर यह है कि ''बंजर धरती की / कँकरीली मिट्टी पर / नूतन जीवन / कैसे बोया जाय!'' जिसकी परिणति यह है कि '' आजन्म / वंचित रह / अभावों ही अभावों में / घिसटती ज़िन्दगी / औचट दहकती यदि / सहज आश्चर्य क्या है?'' परन्तु इस आश्चर्य और विवशता के बीच भी उसे लगता है कि ''ज़िन्दगी / इस तरह / बिखरेगी नहीं /'' भले ही वह ''चीखती / हाफ़ती / ज़िन्दगी / कर चुकी / अनगिनत / ऊर्ध्व ऊँचाइयाँ / गार गहराइयाँ / तय! / थम गया / भोर का / शाम का / गूँजता शोर / गत उम्र की / राह पर / थम गया / एक आह बन / शून्य में / हो गया / लय! /'' वह चाहता है कि ''जीवन अबाधित बहे /'' और ''जय की कहानी कहे!'' और वह शोषित, पीड़ित, दलित, दमित को जगाने वालों, जड़ता को झकझोरने वालों का आह्वान करता है, ''मन से हारो! जागो! तन के मारो! जागो! / जीवन के लहराते सागर में कूदो / ओ गोताखोरो! जड़ता झकझोरो!''</div><div style="text-align: justify;">वस्तुतः यही वह मूल स्वर है जिसे आगे चलकर नवगीत ने अपने कथ्य का आधार बनाया। समय के प्रश्नों से टकराने, जड़ता को झकझोरने, नये युग-मूल्यों को गढ़ने, विसंगतियों से टकराने, धुँधलकों को हटाने, विषमता के चक्रव्यूह को तोड़ने और नवयुग के आह्नान का यही स्वर नवगीत का मूल स्वर है; जिसका मंगलाचरण डा. महेंद्रभटनागर की इन रचनाओं में दिखाई पड़ता है। </div><div style="text-align: justify;">इसलिए लगता है कि कवि महेंद्र जी जहाँ एक ओर छायावादी कोमलता, मार्दव, वायवी प्रणय चेतना और भाषिक तत्समीयता से बाहर नहीं निकल पा रहे; वहीं इन गीतों से यह भी लगता है कि उसमें इन सबको छोड़ने और जीवन की जटिलताओं से सीधे टकराने का हौसला भी है। वह नवयुग की कीर्ति-कथा भी लिखना चाह रहा है। कहा जा सकता है कि ये गीत संक्रमण काल की मनःस्थितियों के गीत हैं।</div><div style="text-align: justify;">गीत के पारम्परिक फार्मेट में छन्द का विशेष महत्त्व है। छन्द ही गीत की लय को नियन्त्रित करने का साधन है। नवगीत के पुरोधा कवि देवेन्द्र शर्मा 'इन्द्र' ने एक गीत में कहा है --</div><div style="text-align: justify;">हाँ, हमने गीत के स्वयंवर में</div><div style="text-align: justify;">तोड़ी है प्रत्यंचा इंद्र के धनुष की!</div><div style="text-align: justify;">अँधियारी लय के कान्तरों में हम</div><div style="text-align: justify;">कालजयी आखेटक</div><div style="text-align: justify;">आश्रयदाताओं के अभिनन्दन में</div><div style="text-align: justify;">झुका नहीं अपना मस्तक</div><div style="text-align: justify;">हमने कब मानी है भाषा अंकुश की ...</div><div style="text-align: justify;">हमसे ही जीवित है इतिहासों में</div><div style="text-align: justify;">एकलव्य की परम्परा,</div><div style="text-align: justify;">बँधी नहीं श्लेष, यमक, रूपक में</div><div style="text-align: justify;">ऋषि की वाणी ऋतम्भरा,</div><div style="text-align: justify;">हमने कब ढोयी है पालकी नहुष की!</div><div style="text-align: justify;">यह गीत छन्द के संबंध में लय के संबंध में व नवगीत के कथ्य के संबंध में रचा गया शाश्वत सूत्र है। नवगीतकार छंद, लय और तुक के बन्धन तोड़कर नयी शिल्प-चेतना का वाहक बनता है और आश्रयदाताओं और नहुषों का कीर्ति गान न करके शोषित पीड़ित विजड़ित मानवता के दर्द को अपने गीतों में उकेरता है। इस दिशा में नवगीतकारों में छन्द के बंधन से अपने को पूर्णत: मुक्त तो नहीं किया है; परन्तु वह छन्द के एक चरण को तोड़कर कई पंक्तियों में लिखकर यौगिक छन्द बना कर चरण-संख्या घटा-बढ़ाकर, चरणों में विसंगतियाँ अपना कर, छन्दहीनता अपना कर तथा बृहत् खण्ड-योजना से छन्दात्मकता लाकर छन्द के इस इंद्रधनुष को नयापन देता है। डा. महेंद्रभटनागर के गीतों में लय की स्वीकृति तो है; परन्तु छन्द को उन्होंने लगभग अस्वीकार कर दिया है। उनके गीतों में न तो चरण-योजना है, न ध्रुवपद के साथ तुक-विधान का अनिवार्य सामंजस्य है। उन्होंने छन्दहीनता व छन्द के चरणों में विसंगतियों को अपनाया है। उदाहरणार्थ उनके बहुचर्चित गीत 'री हवा!' को ही देखें -- </div><div style="text-align: justify;">री हवा !</div><div style="text-align: justify;">गीत गाती आ,</div><div style="text-align: justify;">सनसनाती आ ;</div><div style="text-align: justify;">डालियाँ झकझोरती</div><div style="text-align: justify;">रज को उड़ाती आ ! </div><div style="text-align: justify;">मोहक गंध से भर</div><div style="text-align: justify;">प्राण पुरवैया</div><div style="text-align: justify;">दूर उस पर्वत-शिखा से</div><div style="text-align: justify;">कूदती आ जा ! </div><div style="text-align: justify;">ओ हवा !</div><div style="text-align: justify;">उन्मादिनी यौवन भरी</div><div style="text-align: justify;">नूतन हरी इन पत्तियों को</div><div style="text-align: justify;">चूमती आ जा !</div><div style="text-align: justify;">गुनगुनाती आ,</div><div style="text-align: justify;">मेघ के टुकड़े लुटाती आ ! </div><div style="text-align: justify;">मत्त बेसुध मन</div><div style="text-align: justify;">मत्त बेसुध तन ! </div><div style="text-align: justify;">खिलखिलाती, रसमयी,</div><div style="text-align: justify;">जीवनमयी</div><div style="text-align: justify;">उर-तार झंकृत</div><div style="text-align: justify;">नृत्य करती आ !</div><div style="text-align: justify;">री हवा ! </div><div style="text-align: justify;">(रचना-सन् 1949)</div><div style="text-align: justify;">इस गीत का ध्रुवपद 23-23 मात्राओं से बुना गया है; परन्तु प्रथम चरण तीन पंक्तियों में व द्वितीय चरण दो पंक्तियों में लिखा गया है। पारम्परिक ढंग से इसे अगर इस तरह लिख दिया जाय --</div><div style="text-align: justify;">री हवा / गीत गाती आ / सनसनाती आ!</div><div style="text-align: justify;">डालियाँ झकझोरती / रज को उड़ाती आ!</div><div style="text-align: justify;">तो यह 23 मात्रा का मात्रिक छन्द बन जाएगा। पन्तु आगे के अक्षरों में 'मोहक ... पुरवैया' दो पंक्तियों में 20 मात्राएँ हैं और 'दूर उस पर्वत-शिखा से कूदती आ जा!' में 23 मात्राएँ। आगे की पंक्तियों में क्रमशः 5, 19,, 16, 9 मात्राएँ हैं; जो दो पंक्तियों का चरण बनकर प्रस्तुत है। इस तरह छन्द में 24 एवं 25 मात्राएँ हो जाती हैं और समापन चरण में प्रथम पंक्ति में 9 व द्वितीय पंक्ति ('मेघ के टुकड़े लुटाती आ') में 16 मात्राएँ हैं। इस तरह इस गीत की संरचना में मात्रिक स्तर पर पूर्ण विसंगति है; परन्तु विशेषता यह है कि इसके बावजू़द गीत की लय प्रभावित नहीं हुई है। महेंद्र जी के अन्य गीतों में भी यही विशेषता है। वे पारम्परिक छन्द-बन्धन को नहीं मानते। छन्दों को तोड़ते हैं, एक छन्द के एक चरण को कई पंक्तियों में लिखते हैं और चरणों में विसंगति अपनाते हैं। इससे छन्द का इन्द्रधनुष टूटता है। छन्द-भंग होता है; परन्तु लय का उन्होंने ध्यान रखा है। उनके गीतों में गेयता की अपेक्षा वाचिकता अधिक है जो आगे चलकर अनेक नवगीतकारों में भी मिलती है।</div><div style="text-align: justify;">वस्तुतः निर्विवाद रूप से डा. महेंद्रभटनागर के गीत नवगीत का पूर्वरूप हैं। ये संक्रमण काल की रचनाएँ हैं जिनमें छायावादी प्रवत्तियों के अवशेष भी हैं और नये युग की गीतधर्मी जनचेतना के स्वर भी इन्हें ऐतिहासिक महत्त्व का बनाते हैं। इनमें अपने युग की भविष्यधर्मी नवगीत चेतना की आहट सुनी जा सकती है। </div><div style="text-align: justify;"><br />
</div></div>Unknownnoreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-38740314.post-30927921164879782732011-09-11T04:38:00.000-07:002011-09-11T04:38:06.463-07:00स्वागतयह पृष्ठ अभी निर्माणाधीन है।Unknownnoreply@blogger.com0