नवगीत की पाठशाला का निरंतर चलते जाना इस बात का प्रमाण है कि नवगीत को पसंद किया जा रहा है और नये लोग नवगीत सीखना चाहते हैं। नवगीत में नई कविता का कथ्य लयात्मकता की रेशमी डोर में आवद्ध होकर जब प्रस्तुर किया जाता है तो वह अपना ऐसा प्भाव छोड़ता है कि जो पाठक या श्रोता को ठीक उसी तरह से मोह लेता है जैसे हरसिंगार का पुष्प अपनी सघन जादुई गंध से मोह लेता है। कार्यशाला २१ के लिए हरसिंगार विषय दिया गया था, जिस पर २१ नवगीत पोस्ट किये गए। कुमार रवीन्द्र का पाठशाला में सक्रिय रहना बहुत बड़ी बात है, उनके नवगीत न जाने कितनों को सीखने का सुअवसर प्रदान करते रहते हैं। वे नवगीत लिखते हैं तो लगता है कि बात कर रहे हैं-
"उधर रूपसी धूप
नदी पर तैर रही है
इधर हवा ने
छुवन-पर्व की कथा कही है
साँस सुखी है -
कौंध जग रही कनखी के पहले दुलार की "
-कुमार रवीन्द्र
हमारे समाज में हरसिंगार तो खिल रहे हैं पर उसकी सुगंध को गली कूँचों तक फैलने से रोके जाने के असफल प्रयास स्वार्थवश सदा से होते रहे हैं, इसी की एक झलक यहाँ देखी जा सकती है--
" सहमी दूब
बाँस गुमसुम है
कोंपल डरी-डरी
बूढ़े बरगद की
आँखों में
खामोशी पसरी
बैठा दिए गए
जाने क्यों
गंधों पर पहरे ।"
और जब गंधों पर पहरे बैठाने जैसी हरकतें की जाती हैं तब स्वाभाविकता प्रभावित होती ही है--
" वीरानापन
और बढ़ गया
जंगल देह हुई
हरिणी की
चंचल-चितवन में
भय की छुईमुई
टोने की ज़द से
अब आखिर
बाहर कौन करे "
-डा० जगदीश व्योम
संजीव सलिल जीवन की खुरदरी जमीन पर हरसिंगार के खिलने का तब अहसास कर लेते है जब जीवन संगिनी खिलखिलाती दिख जाती है--
" खिलखिलायीं पल भर तुम
हरसिंगार मुस्काए
पनघट खलिहान साथ,
कर-कुदाल-कलश हाथ
सजनी-सिन्दूर सजा-
कब-कैसे सजन-माथ?
हिलमिल चाँदनी-धूप
धूप-छाँव बन गाए"
-संजीव सलिल
जयकृष्ण राय तुषार जी हरसिंगार के मादक फूलों की अनुभूति प्रिय के प्रेमपगी चितवन में कर लेते हैं-
" बाँध दिए
नज़रों से फूल हरसिंगार के
तुमने कुछ बोल दिया
चर्चे हैं प्यार के
बलखाती
नदियों के संग आज बहना है
अनकहा रहा जो कुछ आज वही कहना है
अब तक हम दर्शक थे नदी के
कगार के
- जयकृष्ण राय तुषार
डा० राजेन्द्र गौतम के नवगीत अपनी अलग पहचान रखते हैं, उनके पास लोक जीवन के अनुभव का अद्भुत खजाना है, बोलचाल की भाषा में वे जो कह देते हैं उससे कहीं अन्दर तक छुअन और अनुभूति जन्य सिहरन का अहसास होने लगता है, स्मृतियों के बन्द कपाट जब खुलते हैं तो मन मृग न जाने कहाँ कहाँ तक कुलाँचे मारता हुआ पहुँच जाता है--
"यद्यपि अपनी चेतनता के
बन्द कपाट किये हूँ
पलकों में वह साँझ शिशिर की
फिर भी घिर-घिर आती
पास अँगीठी के बतियाती
बैठी रहतीं रातें
दीवारों पर काँपा करती
लपटों की परछाई
मन्द आँच पर हाथ सेंकते
राख हुई सब बातें
यादों के धब्बों-सी बिखरी
शेष रही कुछ स्याही
आँधी, पानी, तूफानों ने
लेख मिटा डाले वे
जिनकी गन्ध कहीं से उड़ कर
अब भी मुझ तक आती
-डॉ. राजेन्द्र गौतम
महानगरों के अतिरिक्त व्यामोह ने गाँव की संस्कृति को कुचल कर रख दिया है, अब हरसिंगार उगायें भी तो कहाँ उगायें ? कल्पना रामानी ने इस अभावजनक अनुभूति को नवगीत में सीधे सरल शब्दों में बाँधने का प्रयास किया है-
" अब न रहा वो गाँव न आँगन,
छूट गया फूलों से प्यार।
छोटे फ्लैट चार दीवारें,
कहाँ उगाऊँ हरसिंगार।
खुशगवारयादों का साथी,
बसा लिया मन उपवन में "
-कल्पना रामानी
जीवन की क्षणभंगुरता ही जीवन का सत्य है, इसका अहसास हमें होना ही चाहिए, महेन्द्र भटनागर हरसिंगार के फूल की क्षणभंगुरता के माध्यम से सचेत करते हैं कि थोड़े समय में जैसे हरसिंगार सुगंध लुटाकर मन मन में बस जाता है तो फिर हम भी वही करें--
" जीवन हमारा
फूल हरसिंगार-सा
जो खिल रहा है आज,
कल झर जायगा "
-महेन्द्र भटनागर
शशि पाधा अपने देश से बाहर रहकर यहाँ की सांस्कृतिक सुगंध को मन्द नहीं होने देना चाहती हैं, उन्हें लगता है कि हरसिंगार के फूलों की गंध में माँ का प्यार कहीं छिपा हुआ है-
" घर अँगना फिर हुआ सुवासित
तुलसी -चौरा धूप धुला
ठाकुर द्वारे चन्दन महके
देहरी का पट खुला-खुला
आशीषों के
शीतल झोंके
आँचल बाँध के लाई माँ "
-शशि पाधा
त्रिलोक सिंह ठकुरेला नवगीत की प्रकृति को बहुत करीब से पहचानते हैं, वे कुछ ऐसा प्रस्तुत करते हैं कि उनका नवगीत गुनगुनाने का मन हो ही उठता है, सकारात्मक सोच और संघर्षों से जूझने की प्रेरणा से युक्त ठकुरेला जी के नवगीत बहुत प्रभावित करते हैं--
" मन के द्वारे पर
खुशियों के
हरसिंगार रखो.
जीवन की ऋतुएँ बदलेंगी,
दिन फिर जायेंगे,
और अचानक आतप वाले
मौसम आयेंगे,
संबंधों की
इस गठरी में
थोडा प्यार रखो "
- त्रिलोक सिंह ठकुरेला
शारदा मोंगा ने हरसिंगार के फूलों का मदिर गंध बिखराना और मन्द गति से उनका झरना, मालिन का बीन बीन कर डलिया भरना .......... नवगीत में पिरोकर दृश्य बिम्ब उपस्थित कर दिया है--
" गंध मदिर बिखरे
रात भर हरसिंगार झरे
श्वेत रंग की बिछी चदरिया,
शोभित हरी घास पर हर दिन
चुन चुन हार गूँथ कर मालिन,
डलिया खूब भरे,
रात भर हरसिंगार झरे "
-शारदा मोंगा
वरिष्ठ नवगीतकार डा० भारतेन्दु मिश्र हरसिंगार का मुट्ठी से छूट जाना एक भरम का टूट जाना भर मानते हैं-
" चलो यार
एक भरम टूट गया
मुट्ठी से हरसिंगार छूट गया
पीतल के छल्ले पर
प्यार की निशानी
उसकी नादानी
ठगी गयी फिर शकुंतला
कोई दुष्यंत उसे लूट गया"
-डॉ. भारतेन्दु मिश्र
डा० राधेश्याम बंधु अपने नवगीतों में संस्कृति को सुरक्षित रखने की चिन्ता के साथ साथ जीवन में प्यार और विश्वास को बनाये रखने का आवाहन करते रहते हैं, उनके पास जीवन्त भाषा तो है ही उनकी प्रस्तुति ऐसी है कि नवगीत सहज ही मन के किसी कोने में बैठ जाता है--
" फिर फिर
जेठ तपेगा आँगन,
हरियल पेड लगाये रखना,
विश्वासों के हरसिंगार की
शीतल छाँव
बचाये रखना।
हर यात्रा
खो गयी तपन में,
सड़कें छायाहीन हो गयीं,
बस्ती-बस्ती
लू से झुलसी,
गलियाँ सब गमगीन हो गईं।
थका बटोही लौट न जाये,
सुधि की जुही
खिलाये रखना ..."
- राधेश्याम बंधु
कार्यशाला के अन्य नवगीतों में हरसिंगार के माध्यम से जीवन के तमाम प्रसंगों को प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया, इनमें - श्री अनिल वर्मा , श्री धर्मेन्द्र कुमार सिंह, डॉ. मधु प्रधान, श्री क्षेत्रपाल शर्मा, श्रीकान्त मिश्र 'कान्त', सुश्री रचना श्रीवास्तव, श्री परमेश्वर फुंकवाल, श्री अश्विनी कुमार विष्णु के नवगीत अपनी विशिष्ट छाप छोड़ने में सफल रहे हैं। जिन नवगीतकारों ने कार्यशाला में सहभागिता की और इस बहाने नवगीत रचकर पोस्ट किया उन सभी का पाठशाला के पाठकों की ओर से आभार और जिन पाठकों ने पाठशाला के हरसिंगारी सुगंध से युक्त नवगीतों को पढ़ा और अपनी बहुमूल्य प्रतिक्रियाएँ लिखीं उन सभी का कार्यशाला के नवगीतकारों की ओर से तथा पाठशाला के संयोजकों की ओर से बहुत बहुत आभार।
प्रस्तुति-
डा० जगदीश व्योम